आज की 'राजस्थान पत्रिका' के संपादकीय पृष्ठ पर मेरा आलेख
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बैंकों के निजीकरण में सतर्कता भी जरूरी
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वेद माथुर
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19 जुलाई, 1969 को चौदह तथा 15 अप्रैल, 1980 को छः निजी क्षेत्र के बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था तो कभी यह सोचा भी नहीं गया कि कुछ बैंकों के दुबारा निजीकरण की नौबत आ जायेगी।
निजीकरण के पक्षधर भी इस बात को मानेंगे कि अपनी योजनाओं के माध्यम से राष्ट्रीयकृत बैंकों ने कृषि और लघु,सूक्ष्म व मध्यम तथा बड़े उद्योगों को उत्पादक ऋण देकर जीडीपी और प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। राष्ट्रीयकृत बैंकों ने आवास ऋण के माध्यम से आम आदमी का अपने घर का सपना पूरा किया तो शिक्षा ऋण के माध्यम से साधनहीन छात्रों को उच्च व प्रोफेशनल शिक्षा का अवसर प्रदान कर समृद्ध बना दिया। फिर अचानक निजीकरण की नौबत क्यों आयी ?
निरंतर बढ़ते एनपीए ( सितम्बर, 21 में इनके 13.5 प्रश होने की आशंका है ) और अरबों रुपए की धोखाधड़ी के चलते सरकारी बैंक अपने बल पर नए अंतरराष्ट्रीय पूंजी पर्याप्तता के मानदंड पूरे नहीं कर पा रहे हैं। सरकार को राष्ट्रीयकृत बैंकों को दी गई अपनी पूंजी पर पर्याप्त व उचित लाभांश मिलना तो दूर , हर साल इन बैंकों को हजारों करोड़ रुपए नई पूंजी के रूप में देने पड़ रहे हैं। वर्ष 2014 से अब तक भारत सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को करीब ढाई लाख करोड़ रुपए की पूंजी उपलब्ध करा चुकी है। सरकार इस दायित्व से बचने के लिए भी कुछ बैंकों का निजीकरण कर रही है।
सरकार ने चालू वित्त वर्ष के दौरान दो सरकारी बैंकों और एक बीमा कंपनी समेत सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों और वित्तीय संस्थानों में हिस्सेदारी बेचकर 1.75 लाख करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य रखा है। स्वाभाविक है कि सरकार यह राशि बजट घाटे की पूर्ति के साथ ही सड़कों, बांधों,बड़े अस्पतालों ,हवाईअड्डों तथा अन्य आधारभूत ढांचे के निर्माण और चुनाव की दृष्टि से लोकलुभावन योजनाओं पर खर्च करेगी। सरकार भारतीय स्टेट बैंक और चार बड़े सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का निजीकरण कभी नहीं करेगी क्योंकि इनके माध्यम से उन्हें अपनी योजनाएं चलवानी हैं।
ज्यादातर निजी बैंक काफी हद तक मुनाफे में हैं। बहुत से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक पर्याप्त लाभ नहीं कमा रहे हैं और सरकार सोच रही है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का निजीकरण उन्हें नाम मात्र के लाभ या घाटे में चल रहे उद्यमों से लाभदायक व आत्मनिर्भर व्यवसायों में परिवर्तित कर सकता है। निजी क्षेत्र के बैंक सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की तुलना में उच्च प्रबंधन की स्वायत्तता और विजन,कर्मचारियों की मानसिकता,उचित निगरानी व्यवस्था और नवीनतम टेक्नोलॉजी के कारण अधिक कार्यकुशल हैं। वे अपनी परिचालन दक्षता के लिए भी जाने जाते हैं।अपनी इन खूबियों से निजी बैंकों में संतुष्ट ग्राहकों का प्रतिशत अधिक है तथा वे तदनुसार ज्यादा लाभ कमा रहे हैं। एक निजी बैंकिंग कंपनी पर शेयरधारकों व निदेशक मंडल के समक्ष कुशलतापूर्वक प्रदर्शन करने का दबाव होता है जबकि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का उच्च प्रबंधन अभी भी सरकारी ढर्रे और लालफीताशाही पर चल रहा है।ढीले नियंत्रण के चलते सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने नीरव मोदी कांड में कुल मिलाकर करीब 25000 करोड़ रु की मार खायी।
बैंकों के निजीकरण के कुछ खतरे भी हैं, जिनसे निपटने के लिए सरकार को सतर्कता बरतनी होगी। सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक की जिम्मेदारी होगी कि वह निजी बैंकों पर कड़ी निगरानी रखें ताकि अपनी खून पसीने की कमाई इन बैंकों में रखने वाले जमाकर्ताओं का हित सुरक्षित रह सके। इन बैंकों के जमाकर्ताओं की जमाओं की बीमा राशि भी मौजूदा पांच लाख रुपये से कई गुना बढ़ाए जाने की जरूरत है।
भारतीय रिजर्व बैंक को निजी बैंकों के निदेशक मंडल में चुने जाने वाले निदेशकों के वित्तीय आचरण और बोर्ड में क्रियाकलापों पर भी निगरानी रखनी होगी। कुछ 'फेल' हो गए निजी बैंकों का अनुभव यह बताता है कि भारतीय रिजर्व बैंक का पर्यवेक्षण पर्याप्त नहीं था। ऐसे में निजी बैंकों की निगरानी प्रणाली को कई गुना अधिक मुस्तैद बनाए जाने की जरूरत है।
निजीकरण के इस दौर में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक कर्मचारियों के लिए भी आत्मचिंतन का विषय है कि जन कल्याण के इतने गौरवपूर्ण इतिहास के बावजूद आम आदमी निजीकरण के पक्ष में क्यों है ? दूसरी ओर इन बैंकों के उच्च प्रबंधन को इस बात का जवाब भी देना होगा कि निजी बैंकों की तुलना में बड़े उद्योगों को दिए गए उनके ऋण में एनपीए और डूबत ऋणों का प्रतिशत सात से आठ गुना अधिक क्यों है?
कम्युनिस्ट पार्टियों के दबदबे वाली बैंक कर्मचारियों की यूनियंस भाजपा की केंद्र सरकार के खिलाफ हैं और उनके सक्रिय सदस्य सरकार को 'सबक' सिखाना चाहते हैं।दूसरी ओर भाजपा सरकार पहले स्वेच्छिक सेवानिवृत्ति और फिर निजीकरण करेगी और सिद्ध करेगी कि ये बैंक 60 प्रश स्टाफ से बेहतर चल सकते हैं।
निजीकरण से किसान ,लघु उद्यमी ,छात्र एवं अन्य आम आदमी सुगम व सस्ती बैंकिंग सेवाओं से वंचित ना हो जाए, यह सुनिश्चित करना भी सरकार का दायित्व होगा।
( लेखक बैंकिंग मामलों के जानकार और चर्चित पुस्तक 'बैंक ऑफ पोलमपुर' के लेखक हैं। )