बैंकों के बोर्ड में डायरेक्टर बारातियों की तरह होते हैं, जिन्हें खातिरदारी से मतलब होता है वरमाला/फेरों से नहीं।
एक सरकारी बैंक के बोर्ड द्वारा टॉप मैनेजमेंट के लिए ऑडी कारों की खरीद की अनुमति यह सिद्ध करती है। बोर्ड में वित्त मंत्रालय और आरबीआई के प्रतिनिधि भी डायरेक्टर होते हैं।
'बैंक ऑफ़ पोलमपुर' उपन्यास में बैंकों की बोर्ड मीटिंग के बारे में निम्नलिखित तथ्य बताए गए हैं।
1. बोर्ड मीटिंग का एजेंडा इतना लंबा होता था उसे ठीक से पढ़ कर समझने के लिए पांच -सात दिन का समय चाहिए होता था।
2. बोर्ड की मीटिंग जानबूझकर अपराह्न तीन बजे शुरू की जाती थी ताकि डायरेक्टर्स को एजेंडा पर विस्तृत विचार-विमर्श के लिए समय नहीं मिले। ऐसे में अरबों रुपए के ऋण सहित सारे प्रस्ताव ध्वनिमत से पास हो जाते थे।
सामान्यतः रस्सी के टुकड़े को सांप समझ कर किसी भी कागज पर आसानी से सिग्नेचर नहीं करने वाले निदेशक भी बोर्ड में बेफिक्र होकर कहीं भी हस्ताक्षर कर देते थे क्योंकि उन्हें पता था कि बोर्ड के निर्णय पर किसी की कोई जवाबदेही नहीं है।
3. बोर्ड की मीटिंग वाले दिन डायरेक्टरों की किसी अरबपति की बेटी की शादी की बारात के मेहमानों की तरह खातिरदारी की जाती थी। उत्तर से दक्षिण तक के छप्पन तरह के व्यंजन बनते थे। कुछ खाद्य पदार्थ मेस में निर्मित होते थे जबकि कुछ अलग-अलग होटलों से संग्रहित होते थे। खाने और पदार्थ खाद्य पदार्थों को परोसने के लिए एक दिन के लिए किसी फाइव स्टार होटल से अनुरोध कर वेटर भी 'किराए' पर मंगा लिए जाते थे ।
डायरेक्टर्स को कई अनऑफिशियल सुविधाएं भी दी जाती थी तथा ऋण स्वीकृति, स्थानांतरण और पदोन्नति में डायरेक्टर्स का कोटा फिक्स होता था।
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व्यंग्य उपन्यास
बैंक ऑफ पोलमपुर